Friday, September 20, 2024
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नटवरलाल: भारत के सबसे कुख्यात ठग की कहानी

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प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

नटवरलाल का असली नाम मिथिलेश कुमार श्रीवास्तव था। उनका जन्म 1912 में बिहार के सीवान जिले के बंगरा गाँव में हुआ था। मिथिलेश का परिवार संपन्न था और उनके पिता रघुनाथ श्रीवास्तव एक धनी जमींदार थे। मिथिलेश का बचपन सामान्य था, लेकिन शिक्षा के प्रति उनकी विशेष रुचि नहीं थी। हालांकि, शतरंज और फुटबॉल में उनकी गहरी रुचि थी। वे एक औसत छात्र थे, और उनकी पढ़ाई में दिलचस्पी कम थी।

मिथिलेश की ठग बनने की कहानी का आरंभ तब हुआ जब वह मैट्रिक की परीक्षा में असफल हो गए। इस असफलता से उनके पिता बेहद नाराज हुए और मिथिलेश को कड़ी सजा दी। इस घटना के बाद मिथिलेश ने घर छोड़ने का फैसला किया और मात्र पाँच रुपये लेकर कलकत्ता भाग गए। वहाँ उन्होंने एक नई यात्रा की शुरुआत की, जिसने उन्हें भारतीय इतिहास के सबसे कुख्यात ठगों में से एक बना दिया।

मिथिलेश से नटवरलाल बनने की कहानी

पहली कहानी के अनुसार, कलकत्ता पहुँचने पर मिथिलेश ने बिजली के खंभे के नीचे बैठकर पढ़ाई की। वह मेहनती थे, और अपने जीवन को संवारने की कोशिश में जुट गए। इसी दौरान उनकी मुलाकात एक व्यापारी सेठ केशवराम से हुई, जिसने मिथिलेश को अपने बेटे को पढ़ाने के काम पर रख लिया। मिथिलेश ने इस नौकरी से अच्छी आमदनी की और व्यापारियों की दुनिया को करीब से समझा। लेकिन जब उन्होंने सेठ से अपनी स्नातक की पढ़ाई के लिए पैसे उधार मांगे और सेठ ने इनकार कर दिया, तो मिथिलेश ने ठगी का रास्ता चुना। बदले की भावना से उन्होंने सेठ के साथ धोखाधड़ी की और 4.5 लाख रुपये ठग लिए। इस घटना के बाद मिथिलेश को पहली बार अपनी ठगी की क्षमता का एहसास हुआ।

दूसरी कहानी के अनुसार, मिथिलेश की ठगी की शुरुआत तब हुई जब उनके पड़ोसी सहाय ने उन्हें बैंक ड्राफ्ट जमा करने भेजा। बैंक में जाकर मिथिलेश ने सहाय के हस्ताक्षर की नकल की और पैसे निकालने लगे। इस घटना ने उन्हें फर्जीवाड़े के क्षेत्र में एक नया रास्ता दिखाया। कुछ ही समय में उन्होंने सहाय के खाते से 1000 रुपये निकाल लिए। जब सहाय को इस धोखाधड़ी का पता चला, तब तक मिथिलेश कलकत्ता भाग चुके थे। यहाँ उन्होंने कॉमर्स में स्नातक की डिग्री ली और शेयर बाजार में दलाली का काम करने लगे। इसी के साथ उनकी ठगी की यात्रा ने और गति पकड़ी।

नटवरलाल की ठगी के किस्से

नटवरलाल ने ठगी की दुनिया में कदम रखने के बाद कई ऐतिहासिक धरोहरों और प्रतिष्ठित इमारतों को फर्जीवाड़े के जरिए बेचने का दावा किया। इसमें शामिल हैं:

  • ताजमहल (3 बार)
  • लाल किला (2 बार)
  • राष्ट्रपति भवन (1 बार)
  • संसद भवन (1 बार)

यह बात अविश्वसनीय लग सकती है, लेकिन नटवरलाल ने बड़े पैमाने पर ठगी करते हुए विदेशी खरीदारों को इन धरोहरों को बेचने का दावा किया। उन्होंने सरकारी अधिकारी का भेष धरकर इन महत्वपूर्ण इमारतों को बेचा। एक बार उन्होंने राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के नकली हस्ताक्षर करके संसद भवन तक को बेच दिया था, और यह सब तब हुआ जब सभी सांसद वहीं मौजूद थे!

धोखाधड़ी के अन्य कारनामे

नटवरलाल के पास 52 अलग-अलग नाम थे, जिनमें से एक था “नटवरलाल”। उनका असली हथियार उनकी चतुराई और हस्ताक्षर नकल करने की कुशलता थी। उन्होंने कई बड़े उद्योगपतियों और व्यापारियों को ठगा, जिनमें वह लाखों रुपये की नकदी और सामान ले लेते थे। नटवरलाल नकली चेक और डिमांड ड्राफ्ट के माध्यम से दुकानदारों को धोखा देकर उनसे बड़ी मात्रा में सामान खरीद लेते थे।

दिल्ली के कनॉट प्लेस में घटी एक प्रसिद्ध घटना में, नटवरलाल ने सुरेंद्र शर्मा नामक घड़ी विक्रेता को अपना शिकार बनाया। उन्होंने खुद को तत्कालीन वित्त मंत्री नारायण दत्त तिवारी के व्यक्तिगत स्टाफ के रूप में प्रस्तुत किया और कहा कि प्रधानमंत्री राजीव गांधी वरिष्ठ नेताओं को उपहार के रूप में घड़ियाँ देना चाहते हैं। उन्होंने 93 घड़ियाँ ऑर्डर कीं और दुकानदार को 32,829 रुपये का नकली बैंक ड्राफ्ट दिया। जब दुकानदार ने ड्राफ्ट बैंक में जमा किया, तो उसे पता चला कि वह फर्जी था, और तब जाकर उन्हें एहसास हुआ कि उन्होंने नटवरलाल के झांसे में आकर ठगी का शिकार हो गए हैं।

गिरफ्तारियाँ और जेल से भागने की कहानियाँ

नटवरलाल का ठगी का करियर लंबा चला, और इसके दौरान उन्हें कई बार गिरफ्तार किया गया। उन्होंने कुल 9 बार गिरफ्तार किया गया, लेकिन हर बार वह जेल से भागने में सफल रहे। उन्हें जालसाजी के 14 मामलों में दोषी ठहराया गया था, और कुल मिलाकर 113 साल की सजा सुनाई गई थी। हालांकि, उन्होंने केवल लगभग 20 साल ही जेल में बिताए।

उनकी सबसे उल्लेखनीय भागने की कहानी 1996 में हुई जब वह 84 साल के थे और व्हीलचेयर का उपयोग कर रहे थे। उन्हें इलाज के लिए कानपुर जेल से दिल्ली ले जाया जा रहा था, लेकिन नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उन्होंने पुलिस को चकमा दिया और भाग निकले। यह उनकी आखिरी गिरफ्तारी थी, और इसके बाद उन्हें फिर कभी नहीं पकड़ा जा सका।

नटवरलाल का खुद का दृष्टिकोण

नटवरलाल ने अपने ठगी के कार्यों को कभी अपराध के रूप में नहीं देखा। वह खुद को एक प्रकार का रॉबिन हुड मानते थे। उनका कहना था कि वह केवल अमीरों से ठगी करते थे और गरीबों की मदद करते थे। नटवरलाल ने कभी भी हिंसा का सहारा नहीं लिया; उनका मानना था कि उन्होंने लोगों को केवल अपनी चतुराई से धोखा दिया और इसमें उनकी कोई गलती नहीं थी। वह अक्सर कहते थे, “मैंने कभी हथियार का इस्तेमाल नहीं किया। मैंने लोगों से सिर्फ बहाने बनाकर पैसे मांगे और उन्होंने मुझे दे दिए।”

अंतिम दर्शन और मृत्यु की अनिश्चितता

नटवरलाल को अंतिम बार 24 जून 1996 को देखा गया था। इसके बाद वह पूरी तरह से गायब हो गए। हालांकि, उनके वकील ने 2009 में अदालत में यह अर्जी दाखिल की कि नटवरलाल की मृत्यु 25 जुलाई 2009 को हो चुकी है और उनके खिलाफ चल रहे सभी मामलों को बंद कर दिया जाए। नटवरलाल के छोटे भाई गंगाप्रसाद का भी दावा था कि उनका अंतिम संस्कार रांची में कर दिया गया था। लेकिन आज तक उनकी मृत्यु के कोई ठोस प्रमाण या आधिकारिक दस्तावेज उपलब्ध नहीं हैं, जिससे उनकी मृत्यु एक रहस्य बनी हुई है।

अंतिम विदाई

नटवरलाल का जीवन एक रहस्य और रोमांच से भरा हुआ था। उनकी गिरफ्तारी और भागने की कहानियाँ, उनके द्वारा किए गए ठगी के असंख्य किस्से और उनकी मौत की अनिश्चितता ने उन्हें भारतीय इतिहास के सबसे चर्चित ठगों में से एक बना दिया। नटवरलाल को अंतिम बार दरभंगा रेलवे स्टेशन पर देखा गया था, लेकिन इसके बाद वह पूरी तरह से गायब हो गए। उनकी जिंदगी की आखिरी घटना भी उनके जीवन के बाकी हिस्सों की तरह रहस्यमय ही रही।

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