परिचय
बाबू देवकीनंदन खत्री (18 जून 1861 – 1 अगस्त 1913) हिंदी साहित्य के उन हस्ताक्षरों में से एक हैं जिन्होंने भारतीय उपन्यास लेखन की दिशा में नई राहें खोलीं। वे हिंदी के पहले तिलिस्मी लेखक माने जाते हैं, और उनकी रचनाएँ आज भी पाठकों के दिलों में जीवित हैं। चंद्रकांता, चंद्रकांता संतति, काजर की कोठरी, नरेंद्र-मोहिनी, कुसुम कुमारी, वीरेन्द्र वीर, गुप्त गोदना, और कटोरा भर जैसी कृतियों ने हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
जीवनी
बाबू देवकीनंदन खत्री का जन्म 18 जून 1861 को बिहार के समस्तीपुर जिले के मालीनगर में हुआ। उनके पिता का नाम लाला ईश्वरदास था, जो पंजाब के निवासी थे। उनका परिवार मुगलों के शासनकाल में उच्च पदों पर कार्यरत था। महाराज रणजीत सिंह के पुत्र शेरसिंह के शासनकाल में लाला ईश्वरदास काशी आकर बस गए।
खत्री जी ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा उर्दू-फारसी में प्राप्त की और बाद में हिंदी, संस्कृत, और अंग्रेजी का अध्ययन किया। वे बचपन से ही पढ़ाई में मेधावी थे और उनकी रचनात्मकता को समझने का मौका उनके परिवार को मिला।
आरंभिक शिक्षा के बाद, खत्री जी ने गया के टेकारी इस्टेट में नौकरी शुरू की, जहां उन्होंने अपने लेखन की दिशा में कदम बढ़ाया। इसके बाद, उन्होंने वाराणसी में ‘लहरी प्रेस’ की स्थापना की और 1900 में हिंदी मासिक सुदर्शन का प्रकाशन आरंभ किया। इस पत्रिका ने हिंदी लेखकों को एक मंच प्रदान किया।
साहित्यिक योगदान
बाबू देवकीनंदन खत्री का मुख्य लक्ष्य उस समय की उर्दू भाषा की स्थिति के बीच हिंदी का प्रचार-प्रसार करना था। उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से न केवल हिंदी भाषा को बढ़ावा दिया, बल्कि उसके साहित्यिक स्वरूप को भी समृद्ध किया। खत्री जी के उपन्यासों में तिलिस्म, ऐयारी, और रोमांच का अद्भुत मिश्रण है, जो पाठकों को एक अलग ही दुनिया में ले जाता है।
चंद्रकांता उपन्यास ने हिंदी साहित्य में क्रांति ला दी। यह उपन्यास चार भागों में विभाजित है और इसकी लोकप्रियता इतनी थी कि कई गैर-हिंदीभाषियों ने इसे पढ़ने के लिए हिंदी सीखी। इस उपन्यास में खत्री जी ने अपनी कल्पना शक्ति का भरपूर उपयोग किया और जंगलों, पहाड़ियों, और प्राचीन ऐतिहासिक इमारतों की पृष्ठभूमि में रोमांचक कथानक प्रस्तुत किया।
इसके बाद, उन्होंने इसी कथा को आगे बढ़ाते हुए चंद्रकांता संतति लिखा, जो अपने पूर्ववर्ती उपन्यास की तुलना में कई गुणा अधिक रोचक था। इन उपन्यासों में खत्री जी की लेखनी की सरलता ने इसे पढ़ने के लिए पाठकों को मजबूर किया। इनकी भाषा इतनी सहज थी कि एक आम पाठक भी इसे आसानी से समझ सकता था।
प्रमुख रचनाएँ
- चंद्रकांता (1888 – 1892): इस उपन्यास ने लाखों लोगों को हिंदी सीखने के लिए प्रेरित किया। इसकी कहानी ने पाठकों को एक अद्भुत तिलिस्म की दुनिया में ले जाकर उनके मन को मोह लिया।
- चंद्रकांता संतति (1894 – 1904): इस उपन्यास ने अपने पूर्ववर्ती उपन्यास से कई गुणा अधिक लोकप्रियता प्राप्त की। इसमें खत्री जी ने न केवल रोमांचक कहानियों का समावेश किया, बल्कि पात्रों की जटिलताएं भी दर्शाईं।
- भूतनाथ (1907 – 1913, अपूर्ण): इस उपन्यास में खत्री जी ने चंद्रकांता संतति के एक पात्र को नायक बना कर एक नई कहानी प्रस्तुत की। लेकिन दुर्भाग्यवश, उनकी असामयिक मृत्यु के कारण यह अधूरा रह गया। उनके पुत्र दुर्गाप्रसाद खत्री ने इसे पूरा किया।
- अन्य रचनाएँ: कुसुम कुमारी, वीरेन्द्र वीर, कटोरा भर खून, काजर की कोठरी, नरेंद्र-मोहिनी, गुप्त गोदना।
सारांश
बाबू देवकीनंदन खत्री की रचनाएँ हिंदी साहित्य के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। उनकी कहानियाँ न केवल तिलिस्म और रोमांच से भरी होती हैं, बल्कि वे पाठकों को जीवन के विविध पहलुओं से भी परिचित कराती हैं। खत्री जी का साहित्य आज भी लोगों को प्रेरित करता है और उनकी कहानियाँ हिंदी साहित्य में एक अमूल्य धरोहर के रूप में जानी जाती हैं। उनका योगदान न केवल भाषा के प्रचार-प्रसार में, बल्कि भारतीय उपन्यास लेखन की परंपरा को स्थापित करने में भी महत्वपूर्ण रहा।