प्रारंभिक जीवन और परिवार (पटना, बिहार)
गुरु गोबिंद सिंह का जन्म 22 दिसंबर 1666 को बिहार के पटना शहर में सोधी खत्री परिवार में हुआ था। उस समय उनके पिता गुरु तेग बहादुर, जो सिखों के नौवें गुरु थे, बंगाल और असम की यात्रा पर थे। उनकी माता का नाम माता गुजरी था और उनका परिवार पंजाब के प्रतिष्ठित खत्री समुदाय से संबंध रखता था। आज उनके जन्मस्थान पर तख्त श्री पटना साहिब गुरुद्वारा स्थित है, जो उनके बचपन की स्मृति को संजोए हुए है। जब वे चार वर्ष के थे, तो उनका परिवार पंजाब लौट आया और आनंदपुर साहिब में बस गया, जहाँ युवा गोबिंद दास ने शस्त्र विद्या, भाषाओं और आध्यात्मिक शिक्षा का अध्ययन किया।
पिता का बलिदान (1675)
1675 में, जब गोबिंद दास केवल नौ वर्ष के थे, उनके पिता गुरु तेग बहादुर को मुगल सम्राट औरंगजेब के आदेश से शहीद कर दिया गया। औरंगजेब ने गुरु तेग बहादुर से इस्लाम धर्म अपनाने का आग्रह किया था, जिसे उन्होंने कश्मीरी पंडितों की धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए अस्वीकार कर दिया। उनके बलिदान ने सिख समुदाय के संघर्ष और धर्म की स्वतंत्रता के लिए उनकी अडिगता को स्पष्ट किया।
दसवें गुरु के रूप में स्थापना
अपने पिता की शहादत के बाद, गोबिंद दास को 29 मार्च 1676 को सिखों के दसवें गुरु के रूप में नियुक्त किया गया। इसके बाद उन्होंने गुरु गोबिंद सिंह नाम धारण किया और मार्शल आर्ट्स, घुड़सवारी, तलवारबाज़ी और सैन्य रणनीतियों का अध्ययन किया। उन्होंने चंडी दी वार नामक एक महाकाव्य की रचना की, जो अच्छाई और बुराई के शाश्वत संघर्ष पर आधारित था।
खालसा पंथ की स्थापना (1699)
गुरु गोबिंद सिंह का सिख धर्म में सबसे महत्वपूर्ण योगदान था खालसा पंथ की स्थापना, जिसे उन्होंने 13 अप्रैल 1699 को बैसाखी के दिन आनंदपुर साहिब में किया। इस दिन, गुरु जी ने पाँच स्वयंसेवकों से अपने जीवन की आहुति देने के लिए कहा। इन पाँच स्वयंसेवकों को पंज प्यारे कहा गया, जो खालसा के पहले सदस्य बने। गुरु गोबिंद सिंह ने स्वयं अमृत लेकर खालसा में दीक्षा ली और इस प्रकार सिखों के लिए नए धार्मिक नियम बनाए, जिनमें पाँच ककार शामिल हैं:
- केश: बिना कटे हुए बाल।
- कंघा: लकड़ी की कंघी।
- कड़ा: लोहे का कड़ा।
- कृपाण: तलवार।
- कच्छा: विशेष प्रकार का वस्त्र।
ये पाँच ककार सिख धर्म के अनुयायियों के लिए साहस, समानता और न्याय के प्रतीक बने। गुरु ने अपने अनुयायियों को सिंह (शेर) की उपाधि दी और महिलाओं को कौर (राजकुमारी) का उपनाम दिया, जो साहस और शक्ति का प्रतीक था।
मुगलों के खिलाफ सैन्य नेतृत्व और संघर्ष
गुरु गोबिंद सिंह ने अपने जीवनकाल में कई युद्ध लड़े, जिनमें मुगलों और पहाड़ी राजाओं के खिलाफ उनकी वीरता देखने को मिली। इनमें प्रमुख युद्ध थे:
- भंगानी का युद्ध (1688): यह गुरु गोबिंद सिंह द्वारा लड़ा गया पहला बड़ा युद्ध था, जिसमें उन्होंने स्थानीय राजाओं के गठबंधन को हराया।
- आनंदपुर का घेरा (1700-1704): मुगलों और पहाड़ी राजाओं ने कई बार आनंदपुर पर आक्रमण किया, लेकिन गुरु गोबिंद सिंह के नेतृत्व में सिखों ने साहसपूर्वक अपने दुर्ग की रक्षा की।
इन संघर्षों के दौरान गुरु जी के दो पुत्र, अजीत सिंह और जुझार सिंह, युद्ध में शहीद हो गए। बाद में उनके छोटे पुत्र ज़ोरावर सिंह और फतेह सिंह को मुगल गवर्नर वज़ीर खान द्वारा इस्लाम अपनाने से इंकार करने पर निर्ममता से मार दिया गया। यह बलिदान सिख धर्म में अद्वितीय साहस और धार्मिक स्वतंत्रता के प्रति समर्पण का प्रतीक बन गया।
युद्ध के बाद के वर्ष
दूसरे आनंदपुर युद्ध (1704) के बाद, गुरु गोबिंद सिंह और उनके शेष सैनिकों ने विभिन्न स्थानों पर शरण ली, जिनमें से कुछ गुप्त स्थान जैसे मच्छीवाड़ा जंगल थे। गुरु गोबिंद सिंह ने मालवा क्षेत्र के कई स्थानों में समय बिताया, जैसे मेहदियाना, चक्कर, ताक्तुपुरा, आदि। उन्होंने अपने भरोसेमंद सिखों और रिश्तेदारों के साथ आश्रय लिया।
ज़फ़रनामा: औरंगज़ेब को पत्र
गुरु गोबिंद सिंह ने मुगल सम्राट औरंगज़ेब के युद्ध आचरण को एक धोखा और अधर्म बताया। उन्होंने औरंगज़ेब को ज़फ़रनामा नामक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने उसे आध्यात्मिक और नैतिक दृष्टिकोण से दोषी ठहराया। इस पत्र में गुरु ने भविष्यवाणी की थी कि मुगल साम्राज्य जल्द ही समाप्त हो जाएगा, क्योंकि यह अन्याय और झूठ से भरा हुआ है।
सिख ग्रंथों का संकलन और विरासत
गुरु गोबिंद सिंह ने सिख धर्म के साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने दसम ग्रंथ का संकलन किया, जिसमें वीरता, पौराणिक कथाओं और देवी शक्ति की स्तुति पर आधारित रचनाएँ शामिल हैं। उनका सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ जाप साहिब है, जो ईश्वर की महानता और सर्वव्यापकता की महिमा का गुणगान करता है।
गुरु गोबिंद सिंह का सबसे महत्वपूर्ण निर्णय था गुरु ग्रंथ साहिब को अंतिम गुरु के रूप में स्थापित करना। उन्होंने इस ग्रंथ में अपने पिता गुरु तेग बहादुर के भजनों को शामिल किया और घोषणा की कि अब से सिखों का मार्गदर्शक यही पवित्र ग्रंथ होगा। इसके साथ ही सिख गुरुओं की परंपरा का समापन हुआ, और गुरु ग्रंथ साहिब को सिख धर्म का शाश्वत गुरु माना गया।
बलिदान और उत्तराधिकार (1708)
1708 में गुरु गोबिंद सिंह की नांदेड़, महाराष्ट्र में हत्या कर दी गई। उनके निधन के बाद भी उनकी शिक्षाएँ और उनके द्वारा स्थापित खालसा पंथ सिखों को प्रेरित करते रहे। उनके नेतृत्व, साहित्यिक योगदान और सैन्य साहस ने सिख इतिहास में अमिट छाप छोड़ी, और वे आज भी सिख समुदाय द्वारा श्रद्धापूर्वक स्मरण किए जाते हैं।
गुरु गोबिंद सिंह जी की रचनाएँ
गुरु गोबिंद सिंह न केवल सिखों के दसवें गुरु थे, बल्कि वे एक महान योद्धा, कवि, भक्त, आध्यात्मिक नेता और मौलिक चिंतक थे। वे संस्कृत, ब्रजभाषा, फारसी सहित कई भाषाओं के ज्ञाता थे। बाल्यकाल से ही वे सरल, सहज, भक्ति-भाव वाले कर्मयोगी रहे। गुरु गोबिंद सिंह ने अपने जीवनकाल में कई महत्वपूर्ण रचनाएँ कीं, जिनकी छोटी-छोटी पोथियां बनाई गईं। उनके प्रयाण के बाद उनकी धर्मपत्नी माता सुन्दरी के आदेश पर भाई मणि सिंह खालसा और अन्य खालसा भाइयों ने इन रचनाओं को एकत्र कर उन्हें एक जिल्द में चढ़ाया। इनमें से कुछ प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं:
1. जाप साहिब
जाप साहिब, दशम ग्रंथ की प्रथम वाणी है और यह सिखों की प्रातःकालीन प्रार्थना के रूप में जानी जाती है। इसका संग्रह भाई मणि सिंह ने 1734 के आसपास किया था। यह रचना एक निरंकार के गुणवाचक नामों का संकलन है, जो ईश्वर के विभिन्न गुणों का वर्णन करती है।
2. अकाल स्तुति
अकाल स्तुति ईश्वर की सर्वव्यापकता का चित्रण करती है। इस रचना में प्रभु की तीन भूमिकाओं (उत्पत्ति करने वाला, पालन करने वाला और संहारक) का उल्लेख किया गया है। यह गुरु गोबिंद सिंह के धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण का प्रतीक है।
3. बचित्तर नाटक
बचित्तर नाटक, दशम ग्रंथ का एक हिस्सा है। इसमें ‘नाटक’ शब्द का अर्थ नाटक के पारंपरिक रूप से नहीं है, बल्कि इसमें उस समय की परिस्थितियों और इतिहास की एक झलक प्रस्तुत की गई है। गुरु गोबिंद सिंह ने इसमें बताया है कि हिंदू समाज पर मंडरा रहे संकटों से मुक्ति पाने के लिए कितनी साहस और शक्ति की आवश्यकता थी।
4. चंडी चरित्र
चंडी चरित्र देवी चंडिका की स्तुति है, जिसे गुरु गोबिंद सिंह ने रचा था। यह रचना दशम ग्रंथ के ‘उक्ति बिलास’ नामक भाग का हिस्सा है। गुरु गोबिंद सिंह देवी के शक्ति रूप के उपासक थे और उन्होंने इसे अपनी रचनाओं में भी व्यक्त किया। इस रचना में देवी के विभिन्न रूपों का विस्तृत वर्णन मिलता है, जिसमें ‘शिवा’ का अर्थ परब्रह्म की शक्ति के रूप में किया गया है।
5. चंडी दी वार
चंडी दी वार, दशम ग्रंथ का एक और महत्वपूर्ण हिस्सा है। इसे ‘वार श्री भगवती जी’ के नाम से भी जाना जाता है। यह एक वीर रस से ओत-प्रोत रचना है, जिसमें देवी चंडी के युद्ध कौशल और शक्ति का गुणगान किया गया है।
6. ज्ञान परबोध
ज्ञान परबोध एक विशिष्ट कृति है जो राज धर्म, दंड धर्म, भोग धर्म और मोक्ष धर्म को चार प्रमुख कर्तव्यों के रूप में प्रस्तुत करती है। यह रचना धार्मिक और आध्यात्मिक कर्तव्यों के साथ-साथ राजनीतिक नैतिकता पर भी प्रकाश डालती है।
7. चौबीस अवतार
चौबीस अवतार में विष्णु के चौबीस अवतारों का वर्णन किया गया है। इसमें नारायण, मोहिनी, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, रूद्र, धन्वंतरि, कृष्ण आदि अवतारों की कथाएँ सम्मिलित हैं। यह रचना हिंदू धर्म के धार्मिक मिथकों और कथाओं का सार प्रस्तुत करती है।
8. ब्रह्मा अवतार
ब्रह्मा अवतार में ब्रह्मा के सात अवतारों का चित्रण है। इसमें सृष्टि के उत्पत्ति के रहस्यों और ब्रह्मा के विभिन्न अवतारों के माध्यम से सृष्टि के निर्माण और विनाश के क्रम का उल्लेख किया गया है।
9. रूद्र अवतार
रूद्र अवतार गुरु गोबिंद सिंह की एक महत्वपूर्ण रचना है, जिसमें दत्तात्रेय और पारसनाथ के अवतारों का वर्णन है। यह रचना उन अवतारों के गुणों और कार्यों को रेखांकित करती है, जो दैवीय शक्ति और साहस का प्रतीक माने जाते हैं।
10. शस्त्र माला
शस्त्र माला में विभिन्न शस्त्रों के नाम और प्रकार का उल्लेख किया गया है। यह रचना युद्ध के शास्त्रों और उपकरणों के बारे में ज्ञान प्रदान करती है, जिससे पता चलता है कि गुरु गोबिंद सिंह न केवल एक आध्यात्मिक नेता थे, बल्कि एक रणनीतिक योद्धा भी थे।
इन रचनाओं के माध्यम से गुरु गोबिंद सिंह ने धार्मिक, आध्यात्मिक, और सैन्य दृष्टिकोण से समाज को नई दिशा दी। उनकी रचनाएँ आज भी सिख समुदाय के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी हुई हैं।