प्रकाश झा का नाम भारतीय सिनेमा के उन गिने-चुने फिल्म निर्माताओं में आता है, जिन्होंने अपनी फिल्मों के माध्यम से सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों को केंद्र में रखकर महत्वपूर्ण संवाद स्थापित किया है। उनके निर्देशन में बनी फिल्में न केवल दर्शकों को मनोरंजन प्रदान करती हैं, बल्कि समाज में व्याप्त जटिल मुद्दों पर विचार करने के लिए भी मजबूर करती हैं।
27 फरवरी 1952 को बिहार के चंपारण जिले में जन्मे प्रकाश झा, अपने आरंभिक वर्षों से ही एक गहन सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण रखते थे। बचपन और युवावस्था में उन्होंने बिहार के ग्रामीण परिवेश में जो जीवन संघर्ष और सामाजिक असमानता देखी, वही उनके सिनेमाई दृष्टिकोण की बुनियाद बनी। उनके पिता तेजनाथ झा एक उच्च प्रशासनिक अधिकारी थे, इसलिए उनका पालन-पोषण बड़हरवा, बेतिया जैसे गाँव में एक अनुशासित और जागरूक माहौल में हुआ।
प्रारंभिक शिक्षा और संघर्ष
प्रकाश झा की प्रारंभिक शिक्षा सैनिक स्कूल तिलैया, कोडरमा जिले और केंद्रीय विद्यालय नंबर 1, बोकारो स्टील सिटी, झारखंड में हुई। इसके बाद उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित रामजस कॉलेज में भौतिकी (फिजिक्स) में बीएससी (ऑनर्स) के लिए दाखिला लिया, लेकिन उनका दिल कला और रचनात्मकता की दुनिया में था। एक साल बाद ही उन्होंने अपनी पढ़ाई बीच में छोड़ दी और मुंबई जाकर चित्रकार बनने का सपना संजोया। जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट्स, मुंबई में दाखिला लेने के बाद, उनकी जिंदगी में एक महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब उन्होंने फिल्म धर्म की शूटिंग देखी। इसी दौरान उन्हें फिल्म निर्माण का जुनून चढ़ा और उन्होंने एक फिल्मकार बनने का संकल्प लिया।
प्रकाश झा ने फिल्म निर्देशन और संपादन में औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए 1973 में पुणे के फिल्म एंड टेलीविज़न इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (FTII) में दाखिला लिया। हालांकि, वहां चल रहे छात्र आंदोलन के कारण संस्थान को अस्थायी रूप से बंद करना पड़ा और वे बंबई लौट आए। उन्होंने वहां काम करना शुरू कर दिया और कभी वापस FTII नहीं जा सके। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं था कि उनका प्रशिक्षण अधूरा रह गया; बल्कि उनके व्यावहारिक अनुभवों ने उन्हें एक कुशल फिल्म निर्माता के रूप में स्थापित किया।
फिल्मी करियर की शुरुआत
प्रकाश झा ने अपने करियर की शुरुआत टेलीविजन डाक्यूमेंट्रीज़ से की। उनकी पहली डॉक्यूमेंट्री अंडर द ब्लू (1975) थी। इसके बाद उन्होंने फेस आफ्टर स्टॉर्म (1984) जैसी महत्वपूर्ण डॉक्यूमेंट्री बनाई, जिसने उन्हें राष्ट्रीय पहचान दिलाई। इस फिल्म ने भारत के पुनर्वास नीतियों पर गंभीर सवाल उठाए।
1984 में आई उनकी पहली फीचर फिल्म हिप हिप हुर्रे थी, जिसे गोविंद निहलानी ने लिखा था। इसके बाद उनकी 1985 में आई फिल्म दामुल ने उन्हें भारतीय सिनेमा में एक गंभीर और सशक्त फिल्मकार के रूप में पहचान दिलाई। इस फिल्म में बिहार के गाँवों में व्याप्त जमींदारी प्रथा, पंचायत व्यवस्था, और दलित संघर्ष को मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया गया था। दामुल को न केवल राष्ट्रीय पुरस्कार मिला, बल्कि यह फिल्म अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी सराही गई। इस फिल्म ने प्रकाश झा को समाजिक मुद्दों पर केंद्रित फिल्मों का विशेषज्ञ बना दिया।
सामाजिक और राजनीतिक फिल्मों का दौर
प्रकाश झा की फिल्मों का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि वे हमेशा समाज की गहराईयों में जाकर उसकी समस्याओं को उठाते हैं। उनकी फिल्में भ्रष्टाचार, अपराध, सामाजिक असमानता, और राजनीति की कड़वी सच्चाईयों को बेबाकी से सामने लाती हैं।
मृत्युदंड (1997) एक ऐसी फिल्म थी, जिसने ग्रामीण भारत की कड़वी सच्चाइयों को प्रदर्शित किया। माधुरी दीक्षित, शबाना आज़मी और अयूब खान जैसे सितारों से सजी इस फिल्म ने नारीवाद और सामाजिक न्याय के मुद्दों को बड़े पर्दे पर प्रभावी ढंग से उकेरा।
इसके बाद 2003 में आई फिल्म गंगाजल ने पुलिस और अपराध के बीच के जटिल संबंधों को उजागर किया। अजय देवगन की मुख्य भूमिका वाली यह फिल्म बिहार के एक छोटे शहर में भ्रष्ट पुलिस तंत्र और अपराधियों के खिलाफ संघर्ष की कहानी है। इस फिल्म ने भी बॉक्स ऑफिस पर सफलता के झंडे गाड़े और प्रकाश झा को एक सशक्त राजनीतिक फिल्म निर्माता के रूप में स्थापित किया।
अपहरण (2005) और राजनीति (2010) जैसी फिल्मों ने उन्हें एक ऐसे फिल्मकार के रूप में स्थापित किया, जो समाज में हो रहे राजनीतिक बदलावों को समझते हैं और उन्हें फिल्म के माध्यम से दर्शाते हैं। अपहरण में उन्होंने बिहार में बढ़ते अपराध और अपहरण की बढ़ती घटनाओं को प्रस्तुत किया, जबकि राजनीति ने भारतीय राजनीति की जटिलता और सत्ता संघर्ष की कहानी बयां की।
राजनीतिक यात्रा और चुनावी संघर्ष
प्रकाश झा न केवल फिल्मों में सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों को उठाते हैं, बल्कि उन्होंने खुद भी राजनीति में सक्रिय रूप से भाग लिया है। उन्होंने आम चुनावों में उम्मीदवार के रूप में हिस्सा लिया, हालांकि वे चुनाव जीतने में सफल नहीं हो पाए। फिर भी, उनका राजनीतिक दृष्टिकोण और भ्रष्टाचार के खिलाफ उनकी लड़ाई फिल्मों में साफ तौर पर दिखाई देती है।
उनका मानना है कि सिनेमा समाज का आईना है, और इसके माध्यम से समाज में सकारात्मक बदलाव लाया जा सकता है। यही कारण है कि वे अपने साहसिक प्रयासों के जरिए समाज को जागरूक करने के लिए संघर्षरत रहते हैं।
प्रकाश झा की फिल्में
वर्ष | फ़िल्म | श्रेणी |
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बतौर लेखक | ||
2003 | गंगाजल | लेखक |
बतौर अभिनेता | ||
बतौर निर्देशक | ||
2016 | जय गंगाजल | निर्देशक |
2022 | मटो की साइकिल | निर्देशक |
2011 | आरक्षण | निर्देशक |
2010 | राजनीति | निर्देशक |
2005 | अपहरण | निर्देशक |
2003 | गंगाजल | निर्देशक |
1999 | दिल क्या करे | निर्देशक |
1997 | मृत्युदंड | निर्देशक |
1996 | बंदिश | निर्देशक |
2013 | सत्याग्रह | निर्देशक |