सहोदर भाई
दिनभर बेमतलब
बाजार में बगाइले,
दिनभर के बोझा लेके
ढुल जाले साँझ
रात के पंवदर पर जब
गाँव ओरि जाइले,
त राह में
अहीर के एगो गाँव पड़ेला,
हम राजपूत हईं !
मन में उठेला फारवर्ड-बैकवर्ड बात
भीतरे-भीतरे करिले घात-प्रतिघात।
तले साइकिल खाले हिचकोला
उहाँ से शुरू होला मुसलमान टोला,
त मन मंदिर-मस्जिद में फँस जाला
मुट्ठी हमार तनि देर-ला कस जाला।
नियरा जाला झमटहा बर
जहाँ से चारे लग्गी पर बा
हमार घर
घर !
घर का, बस घर-नियर
दू अलंग से भंसल देवाल
उजड़ल छान
टूटल दुआरी, उछिटल केवारी,
मघ के कसाई रात
सेराइल रोटी
पाला लउका के तरकारी
खा के, हाली-हाली अंचा के
जसहिं करीं दुमुँहा के चउखट पार,
सुनाला
अनपढ़-गँवार
कोठा पर टहलत
ठेकेदार-पटिदार के अचरत ढेकार।
चीना के पुआर
कुचइल लेवा
गुदरी रजाई में घुसिआइले।
देर-ले देह ना गरमाला
घिकुरी-पर-घिकुरी लगाइले
रजाई के छेद परे
ताकिले छान
बेपरद छान-मांहे
लउकेला सोझे
लाँगट-उघाड़ टूअर चान,
त ओह घड़ी हर ऊ अहीर
हर ऊ राजपूत
हर ऊ मुसलमान,
जेकर असहिं बेलंगल भइल बा छान
जेकर चेथड़ी-चेथड़ी भइल बा रजाई,
ऊ लागेला हमरा आपन भाई
आपन…खास…सहोदर भाई।
रचना :अशोक शेरपुरी