भारत में मनाई जाने वाली होली की अगर बात करें तो ब्रज की ‘लट्ठमार होली’ बहुत ही चर्चित रहती है |आज हम आपको अपने बिहार की एक ऐसी जगह की होली के बारे में बताने जा रहे हैं …..जो ब्रज की तरह ही बड़े भव्य तरीके से मनाई जाती है |
हम बात कर रहे हैं बिहार के सहरसा जिले के बनगांव में मनाई जाने वाली ‘घुमौर होली’ की| सहरसा शहर से मात्रा ८ किलोमीटर की दुरी पर स्थित यह गाँव अपनी एक विशेष तरह की होली के लिए मशहूर है | इसमें लोग एक-दूसरे के कंधे पर सवार होकर, उठा-पटक करके होली मनाते हैं। खास बात यह भी है कि यह होली एक दिन पहले मनायी जाती है। इस साल यह 1 मार्च को मनाई गयी है|
मान्यता है कि इसकी परंपरा भगवान श्रीकृष्ण के काल से ही चली आ रही है। वर्तमान में खेले जाने वाले होली का स्वरूप 18वीं सदी में यहां के प्रसिद्ध संत लक्ष्मीनाथ गोसाईं ने तय किया था।
अद्भुत होता है होली का दृश्य
गांव के निवासी कहते हैं कि इस होली का दृष्य अद्भुत होता है। युवा दो भागों में बंट जाते हैं। वे खुले बदन गांव में घूमते हैं और हुड़दंगी होली खेलते हैं |होली के दिन गांव के निर्धारित पांचों स्थलों (बंगलों) पर होली खेलने के बाद जैर (रैला) की शक्ल में भगवती स्थान पहुंचते हैं। वे वहां गांव की सबसे ऊंची मानव श्रृंखला बनाते हैं। इस दौरान संत लक्ष्मीपति रचित भजनों को गाते रहते हैं।
भगवती स्थान के पास इमारतों पर रंग-बिरंगे पानी के फव्वारे लगाए जाते हैं। इनके नीचे लोग एक-दूसरे के कंधों पर चढ़कर मानव श्रृंखला बनाते हैं। इस बीच जगह-जगह गांव के घरों के झरोखों से मां-बहनें रंग उड़ेलती हैं।
बनगांव की होली का असली हुड़दंग दोपहर तक टाेलियों के माता भगवती के मंदिर पर जमा होने के बाद ही होता हैं। खासतौर से पुरुष ही हुड़दंगी होली खेलते हैं और महिलाएं दूर से देखती हैं। मानव श्रृंखला बनाकर होली खेलने तथा शक्ति प्रदर्शन के बाद बाबा जी कुटी में होली समाप्त हो जाती है।
इस होली की तैयारियां एक सप्ताह पहले से आरंभ हो जातीं हैं
बनगांव में होली की तैयारियां एक सप्ताह पहले से ही श्ुारू हो जाती है। शास्त्रीय संगीत व सुगम संगीत के साथ जगह-जगह गांव के बंगलाें पर सांस्कृतिक कार्यक्रम हाेने लगते हैं। ललित झा बंगला पर वाराणसी के कलाकारों की ओर से शास्त्रीय संगीत की सुर निरंतर बिखेरी जाती रहती है।
लोग यहाँ के होली के सम्प्र्रदायिक सौहाद्र की मिसाल देते हैं
कहरा की प्रखंड प्रमुख अर्चना प्रकाश बताती हैं कि बनगांव की होली में हिन्दू-मुस्लिम का भेद नहीं रहता है। उस दिन कोई छोटा और बड़ा नजर नहीं आता। गांव के ही राधेश्याम झा के अनुसार इस अनूठी होली को खेलने वालों के अलावा देखने वालों की संख्या भी हजारों में होती है।