Tuesday, December 3, 2024

छठ पर्व: सूर्य देवता और छठी मैया की आराधना का पर्व

छठ पर्व, जिसे छइठ या षष्ठी पूजा भी कहा जाता है, एक प्राचीन हिन्दू पर्व है जो कार्तिक शुक्ल पक्ष के षष्ठी को मनाया जाता है। यह पर्व बिहार के वैदिक आर्य संस्कृति की झलक प्रस्तुत करता है। छठ पर्व को मैथिल, मगही और भोजपुरी लोगों का सबसे बड़ा पर्व माना जाता है, और इसे उनकी संस्कृति की पहचान के रूप में देखा जाता है। बिहार में इस पर्व को अत्यधिक धूमधाम से मनाया जाता है और यह वैदिक काल से चला आ रहा एकमात्र पर्व है।छठ पर्व का मुख्य उद्देश्य सूर्य देवता, प्रकृति, जल, वायु, और छठी मैया को धन्यवाद देना है, ताकि पृथ्वी पर जीवन को बनाए रखा जा सके। छठी मैया, जो भगवान सूर्य की बहन मानी जाती हैं, पर्व की देवी के रूप में पूजी जाती हैं।

इसका उल्लेख ऋग्वेद में सूर्य पूजन और उषा पूजन के रूप में मिलता है, और इसे आर्य परंपरा के अनुसार मनाया जाता है। मिथिला में उन्हें रनबे माय, भोजपुरी में सबिता माई और बंगाली में रनबे ठाकुर के नाम से भी जाना जाता है।

छठ पर्व चार दिनों का एक लंबा अनुष्ठान है, जिसमें व्रतधारियों द्वारा पवित्र स्नान, उपवास और बिना पानी पिए रहना (वृत्त), और पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देना शामिल होता है। व्रतधारी या परवैतिन आमतौर पर महिलाएं होती हैं, लेकिन पुरुष भी इस पर्व का पालन करते हैं। यह त्यौहार लिंग-विशिष्ट नहीं है, और इसे हर आयु वर्ग के लोग मनाते हैं।

शुरुआत

ऐतिहासिक रूप से, मुंगेर सीता मनपत्थर (सीता चरण) के नाम से प्रसिद्ध है, जहाँ गंगा के बीच एक शिलाखंड पर स्थित सीताचरण मंदिर बना हुआ है। मान्यता है कि माता सीता ने यहीं पर छठ पर्व का आयोजन किया था, और इसी स्थान से छठ महापर्व की शुरुआत हुई। इसी कारण मुंगेर और बेगूसराय में छठ महापर्व को बड़ी श्रद्धा और धूमधाम से मनाया जाता है।

देव सूर्य मंदिर

देव, औरंगाबाद स्थित यह प्राचीन सूर्य मंदिर विश्व के प्रमुख सूर्य मंदिरों में से एक माना जाता है। एक पौराणिक कथा के अनुसार, प्रथम देवासुर संग्राम में देवताओं की हार के बाद, देव माता अदिति ने अपनी पुत्री छठी मैया (रनबे) की आराधना इसी मंदिर में की थी। अदिति ने छठी मैया से तेजस्वी पुत्र प्राप्ति की प्रार्थना की, जिसके फलस्वरूप उन्हें आदित्य भगवान का आशीर्वाद प्राप्त हुआ। उनके पुत्र ने देवताओं को असुरों पर विजय दिलाई और देवताओं का सम्मान पुनः स्थापित किया।

लोक आस्था का पर्व: छठ

भारत में लोक आस्था का पर्व छठ सूर्य की उपासना के लिए प्रसिद्ध है। यह पर्व मूल रूप से सूर्य षष्ठी व्रत के कारण “छठ” कहलाता है। इसे वर्ष में दो बार मनाया जाता है—पहली बार चैत्र में, जिसे चैती छठ कहते हैं, और दूसरी बार कार्तिक में, जिसे कार्तिकी छठ कहा जाता है। पारिवारिक सुख-समृद्धि और मनोवांछित फल की प्राप्ति के लिए स्त्री और पुरुष दोनों समान रूप से इस व्रत का पालन करते हैं।

छठ पर्व से जुड़ी कई कथाएँ प्रचलित हैं। एक प्रमुख कथा के अनुसार, जब पांडव अपना सारा राज्य जुए में हार गए थे, तब भगवान श्रीकृष्ण के सुझाव पर द्रौपदी ने छठ व्रत रखा। व्रत की शक्ति से पांडवों को उनका राज्य वापस मिला, और उनकी सभी इच्छाएँ पूरी हुईं। लोक परंपरा के अनुसार, सूर्य देव और छठी मइया के बीच भाई-बहन का रिश्ता माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि सूर्य देव ने ही छठी मइया की पहली पूजा की थी।

छठ पर्व किस प्रकार मनाते हैं ?

पहला दिन: नहाय-खाय

छठ पर्व का पहला दिन नहाय-खाय के नाम से जाना जाता है। इस दिन व्रती (व्रत रखने वाले) गंगा या किसी पवित्र नदी में स्नान करके शुद्धता का संकल्प लेते हैं। इसके बाद व्रती और उनके परिवार के लोग सादा और सात्विक भोजन ग्रहण करते हैं, जिसमें सेंधा नमक, घी में बना अरवा चावल और कद्दू की सब्जी शामिल होती है। यह भोजन व्रत के पहले दिन का प्रसाद होता है और इसे ग्रहण करने से शरीर और मन की शुद्धता सुनिश्चित की जाती है, ताकि व्रत की प्रक्रिया में कोई व्यवधान न हो।

दूसरा दिन: खरना

दूसरे दिन को खरना कहा जाता है। इस दिन व्रती दिनभर उपवास रखते हैं और जल तक ग्रहण नहीं करते। शाम को पूजा के बाद व्रती खीर, रोटी और फल का प्रसाद ग्रहण करते हैं। इस प्रसाद को पूरी पवित्रता और श्रद्धा के साथ तैयार किया जाता है। खरना का प्रसाद ग्रहण करने के बाद व्रती अगले 36 घंटों तक निराहार और निर्जल रहते हैं। इस दिन का उपवास व्रत की कठिनाई को और भी बढ़ा देता है, लेकिन इसे सहन करने का एकमात्र उद्देश्य सूर्य देवता और छठी मइया की कृपा प्राप्त करना होता है।

तीसरा दिन: संध्या अर्घ्य

तीसरे दिन का व्रत सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है, क्योंकि इस दिन व्रती डूबते हुए सूर्य को अर्घ्य (दूध और जल अर्पण) देते हैं। परिवार और समाज के अन्य लोग भी घाट पर इकट्ठा होकर व्रती के साथ इस पवित्र अनुष्ठान में शामिल होते हैं। व्रती सूर्यास्त के समय सूर्य देवता को अर्घ्य अर्पित करते हैं और इस दौरान पूजा के विशेष भजन-कीर्तन गाए जाते हैं। अर्घ्य देने के बाद व्रती और अन्य लोग पवित्र जल में खड़े होकर छठी मइया की आराधना करते हैं। यह दिन छठ पर्व की आध्यात्मिक महत्ता को सबसे अधिक दर्शाता है, क्योंकि इसमें प्रकृति और उसके तत्वों को धन्यवाद देने का संदेश छिपा होता है।

चौथा दिन: उषा अर्घ्य

पर्व का अंतिम दिन उगते सूर्य को अर्घ्य देने का होता है। इस दिन व्रती और उनके परिवार के लोग सूर्योदय से पहले घाट पर पहुँचते हैं और उगते हुए सूर्य को दूध, जल और नारियल अर्पित करते हैं। यह अर्घ्य पूजा का समापन होता है, जो सूर्य देवता को नमन कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करने के उद्देश्य से किया जाता है। इस दिन सूर्य की पहली किरणों को अर्पित किया गया अर्घ्य जीवन में नई शुरुआत और उज्जवल भविष्य का प्रतीक माना जाता है।

पवित्रता और परंपरा का विशेष ध्यान

छठ पर्व में पवित्रता का विशेष ध्यान रखा जाता है। इस पर्व के दौरान लहसुन, प्याज और अन्य तामसिक खाद्य पदार्थों का प्रयोग वर्जित होता है। पूजा के दौरान हर वस्त्र, भोजन और पूजा सामग्री का शुद्ध और साफ होना अत्यंत आवश्यक है। इस पर्व में लोक गीतों और भजनों का भी विशेष महत्व है, जो श्रद्धालुओं द्वारा गाए जाते हैं। इनमें छठी मइया और सूर्य देवता की महिमा का बखान होता है।

घरों में इस दौरान भक्तिगीत और पारंपरिक लोक संगीत का माहौल होता है, जो छठ की भक्ति और आस्था को और भी गहरा बनाता है। पूजा समाप्त होने के बाद प्रसाद बांटने की परंपरा होती है, जिसे सभी बड़े उत्साह और श्रद्धा से ग्रहण करते हैं।

संध्या अर्घ्य

छठ पर्व का तीसरा दिन संध्या अर्घ्य का दिन होता है, जो चैत्र या कार्तिक शुक्ल षष्ठी को मनाया जाता है। इस दिन व्रती और उनके परिवारजन पूरे दिन पूजा की तैयारियों में जुटे रहते हैं। छठ पूजा के लिए विशेष प्रसाद तैयार किया जाता है, जिसमें ठेकुआ और चावल के लड्डू (कचवनिया) प्रमुख होते हैं। पूजा सामग्री को एक बांस की टोकरी, जिसे दउरा कहा जाता है, में सजाया जाता है। इसमें प्रसाद, फल, और अन्य पूजा सामग्री रखी जाती है, जिसे बाद में देवकारी में रख दिया जाता है, जहां पूजा-अर्चना होती है। शाम को यह सामग्री दउरा में सजाकर, घर का पुरुष सदस्य सिर पर उठाकर छठ घाट की ओर ले जाता है, ताकि यह अपवित्र न हो।

छठ पूजा में प्रयुक्त प्रसाद का विशेष महत्व होता है। व्रती स्वयं गेहूँ के आटे से ठेकुआ बनाते हैं, जिसे लकड़ी के डिजाइनदार सांचे पर तैयार किया जाता है। इसके अलावा, कार्तिक मास में खेतों से उपजे गन्ना, ओल, हल्दी, नारियल, नींबू, पके केले जैसे नए कंद-मूल और फल-सब्जियाँ भी पूजा में शामिल होते हैं। सभी सामग्री साबुत अर्पित की जाती है, यानी इन्हें काटा या तोड़ा नहीं जाता। दीप जलाने के लिए नए दीपक, बत्तियाँ, और घी भी घाट पर लेकर जाते हैं। पूजा के दौरान, एक विशेष प्रकार का अन्न कुसही केराव भी शामिल होता है, जिसे संध्या अर्घ्य में नहीं, बल्कि उषा अर्घ्य के समय अर्पित किया जाता है।

बहुत से लोग रातभर घाट पर रुकते हैं, जबकि कुछ लोग पूजा सामग्री लेकर घर वापस लौट आते हैं और उसे देवकारी में रख देते हैं। यहाँ छठ के गीत गाते हुए भक्ति का माहौल बना रहता है।

उषा अर्घ्य

छठ पर्व का चौथा और अंतिम दिन उषा अर्घ्य का होता है। कार्तिक शुक्ल सप्तमी की सुबह उगते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। व्रती सूर्योदय से पहले ही घाट पहुँच जाते हैं और अपने परिवारजनों के साथ उगते सूर्य की पूजा करते हैं। संध्या अर्घ्य में अर्पित पकवानों को नए पकवानों से बदल दिया जाता है, जबकि कंद-मूल और फल-सब्जियाँ वही रहती हैं। इस समय व्रती पूरब दिशा की ओर मुंह करके पानी में खड़े होकर सूर्योपासना करते हैं।

पूजा समाप्त होने पर, घाट पर प्रसाद वितरण होता है, और व्रती घर लौटते हैं। घर पर भी प्रसाद का वितरण किया जाता है। इसके बाद, व्रती गाँव के पीपल के पेड़ के पास, जिसे ब्रह्म बाबा कहा जाता है, जाकर पूजा करते हैं। पूजा समाप्त होने के बाद व्रती कच्चे दूध का शरबत पीकर और थोड़ा प्रसाद ग्रहण करके व्रत का पारण करते हैं। खरना से लेकर इस दिन तक व्रती निर्जल रहते हैं और पारण के बाद ही नमकयुक्त भोजन करते हैं। इस प्रकार, छठ व्रत का समापन होता है, जिसमें सूर्य देवता और छठी मइया की कृपा प्राप्त की जाती है।

छठ पूजा का सामाजिक और सांस्कृतिक महत्त्व

छठ पूजा का सबसे महत्वपूर्ण पहलू इसकी सादगी, पवित्रता, और लोकपक्ष है। यह पर्व भक्ति और आध्यात्म से परिपूर्ण है, जिसमें बांस निर्मित सूप, टोकरी, मिट्टी के बर्त्तन, गन्ने का रस, गुड़, चावल, और गेहूँ से बने प्रसाद के साथ-साथ सुमधुर लोकगीतों का समावेश होता है। इस प्रकार, यह लोक जीवन की मिठास को व्यापक रूप से फैलाता है।

यह उत्सव जनता द्वारा स्वयं अपने सामूहिक अभियान के माध्यम से आयोजित किया जाता है। नगरों की सफाई, व्रतियों के गुजरने वाले रास्तों का प्रबंधन, तालाब या नदी किनारे अर्घ्यदान की उपयुक्त व्यवस्था के लिए समाज सरकार की मदद का इंतज़ार नहीं करता। खरना के उत्सव से लेकर अर्ध्यदान तक, इस उत्सव में समाज की अनिवार्य उपस्थिति बनी रहती है।

यह पर्व सामान्य और गरीब जनता के दैनिक जीवन की मुश्किलों को भुलाकर सेवा-भाव और भक्ति-भाव से किए गए सामूहिक कर्म का एक विराट और भव्य प्रदर्शन है। छठ पूजा न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि यह सामाजिक एकता और सामूहिकता का भी प्रतीक है, जो लोगों को एक साथ जोड़ता है और उन्हें अपने सांस्कृतिक मूल्यों को बनाए रखने की प्रेरणा देता है।

छठ गीत

लोकपर्व छठ के विभिन्न अवसरों पर जैसे प्रसाद बनाते समय, खरना के समय, अर्घ्य देने के लिए जाते हुए, अर्घ्य दान के समय और घाट से घर लौटते समय अनेकों सुमधुर और भक्ति-भाव से पूर्ण लोकगीत गाये जाते हैं।

  • ‘केलवा जे फरेला घवद से, ओह पर सुगा मेड़राय
  • काँच ही बाँस के बहंगिया, बहंगी लचकत जाए’
  • सेविले चरन तोहार हे छठी मइया। महिमा तोहर अपार।
  • उगु न सुरुज देव भइलो अरग के बेर।
  • निंदिया के मातल सुरुज अँखियो न खोले हे।
  • चार कोना के पोखरवा
  • हम करेली छठ बरतिया से उनखे लागी।

इस गीत में एक ऐसे तोते का जिक्र है जो केले के ऐसे ही एक गुच्छे के पास मंडरा रहा है। तोते को डराया जाता है कि अगर तुम इस पर चोंच मारोगे तो तुम्हारी शिकायत भगवान सूर्य से कर दी जाएगी जो तुम्हें नहीं माफ करेंगे, पर फिर भी तोता केले को जूठा कर देता है और सूर्य के कोप का भागी बनता है। पर उसकी भार्या सुगनी अब क्या करे बेचारी? कैसे सहे इस वियोग को? अब तो सूर्यदेव उसकी कोई सहायता नहीं कर सकते, उसने आखिर पूजा की पवित्रता जो नष्ट की है।

छठ पूजा की तिथि और काल

छठ पूजा का पर्व दीपावली के छठे दिन से आरंभ होता है और यह चार दिनों तक चलता है। इस दौरान श्रद्धालु भगवान सूर्य की आराधना करते हैं, जिससे वे वर्षभर सुख, स्वास्थ्य, और निरोगता की कामना करते हैं।

इस चार दिवसीय पर्व का पहला दिन घर की साफ-सफाई से शुरू होता है। लोग अपने घरों को स्वच्छ बनाते हैं और पूजा की तैयारी में जुट जाते हैं। यह पर्व न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि यह स्वास्थ्य और सुख-समृद्धि की कामना करने का एक महत्त्वपूर्ण अवसर भी है।

छठ पूजा के चार दिनों की धार्मिक गतिविधियाँ और उनके अनुष्ठान का महत्व हर श्रद्धालु के लिए विशेष होता है।

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